Madhu varma

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लेखनी कविता -व्यथा की रात -महादेवी वर्मा

व्यथा की रात -महादेवी वर्मा 


यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है?

ज्योति-शर से पूर्व का
 रीता अभी तूणीर भी है,
कुहर-पंखों से क्षितिज
 रूँधे विभा का तीर भी है,
क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है ?

छंद-रचना-सी गगन की
 रंगमय उमड़े नहीं घन,
विहग-सरगम में न सुन
 पड़ता दिवस के यान का स्वन,
पंक-सा रथचक्र से लिपटा अँधेरा है ।

 रोकती पथ में पगों को
 साँस की जंजीर दुहरी,
जागरण के द्वार पर
 सपने बने निस्पृह प्रहरी,
नयन पर सूने क्षणों का अचल घेरा है ।

 दीप को अब दूँ विदा, या
 आज इसमें स्नेह ढालूँ ?
दूँ बुझा, या ओट में रख
 दग्ध बाती को सँभालूँ ?
किरण-पथ पर क्यों अकेला दीप मेरा है ?

यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है? 


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